आँसू-ए-फ़लक़, जब बहती है धरा के सीने में,
लिपटते है लता जब,वृक्षो के आलिंगन में,
चहकती है डालिया,महकती है मिट्टी,
मग्न होती है कुदरत ,मृदुल धुन के साथ जीने में
नाचती है पत्ते,वायू के सुरमई इशारो में,
खिलते है फ़ूल गगन के शीतल नेत्र जल में,
कसर नही छोड़ती प्रकृति,किसी भी दिशा से,
श्रृंगार पृथ्वी की,पूरी सक्षमता से करने में।
चमकती हैं वादिया ,सूर्य की लालिमा में
छिपति है अम्बर,घटा के पीछे अंशतः तौर पे,
कुछ इस कदर सवारा जाता है वातवरण को,
रमणीय वर्षा के इस प्रतिविम्ब स्वरूप में।।